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कविता

राजाजी हैं धन्य

जय चक्रवर्ती


तीर कपोतों पर ताने
गिद्धों को पाले हैं
राजा जी हैं धन्य
कि
उनके खेल निराले हैं।

उनका जाल, उन्हीं के दाने
धनुष-बाण उनका
उनकी मजलिस, मुंसिफ उनका
संविधान उनका

सब दरवाजे उनके,
उनके
चाबी-ताले हैं।

प्रजाजनों का धर्म
‘निवाला’ बन कर सभी चलें
राजा जी का शौक कि
जिसको जब चाहें निगलें

उनके मुँह में खून
और
वे ही रखवाले हैं।

पहन रखे हैं उनके चेहरे ने
चेहरे अनगिन
क्या पूरब, क्या पश्चिम
उनको क्या उत्तर-दक्खिन

अँधियारे हैं सबके,
उनके -
सिर्फ उजाले हैं।


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